Tuesday 24 July 2018

भविष्य का कृषि संकट कार्पोरेट खेती / कार्पोरेट जमींदारी विवेकानंद माथने


भविष्य का कृषि संकट 
कार्पोरेट खेती / कार्पोरेट जमींदारी
                                                                 विवेकानंद माथने 

23/07/2018

 

शायद भारत अब किसानोंका देश नही कहलायेगा। यहां खेती तो की जायेगी लेकिन किसानों के द्वारा नही, खेती करनेवाले कार्पोरेट्स होंगे, कार्पोरेट किसान। पारिवारिक खेती की जगह कार्पोरेट खेती। आज के अन्नदाता किसानों की हैसियत उन बंधुआ मजदूरों या गुलामों की होगी, जो अपनी भूख मिटाने के लिये कार्पोरेट्स के आदेश पर काम करेंगे। उनके लिये किसानों की समस्याओं का समाधान किसानों के अस्तित्व को ही मिटाना है। इस समय देश में खेती और किसानों के लिये जो नीतियां और योजनायें लागू की जा रही है उसके पीछे यही सोच है। किसानों को खेती से बाहर करने की योजना उन्होने बना ली है। अगर किसान अपने अस्तित्व का यह अंतिम संग्राम नही लढ पाया तो उसकी हस्ती हमेशा के लिये मिटा दी जायेगी। उनके लिये न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।   
उन्होंने पहले ही साजिश पूर्वक देशकी ग्रामीण उद्योग व्यवस्था तोड दी और गांवोके सारे उद्योग बंद कर दिये। जैसी की उनकी नीति रही है, स्थानीय उत्पादक विरुद्ध ग्राहकों के हितोंको एक दूसरे के विरुद्ध खडा किया गया। स्थानीय उद्योगों में उत्पादित वस्तुओं को घटिया व महंगा और कंपनी उत्पादन को सस्ता व क्वालिटी उत्पादन के रुपमें प्रचारित कर यहां के दुकानों को कंपनी उत्पादनों से भर दिया गया। स्थानीय उत्पादन की जगह कार्पोरेट उत्पादन को प्रमोट करने में यहां के व्यापारियों ने भी कोई कसर नही छोडी। कार्पोरेट उत्पादनों को ग्राहकों तक पहुंचाने के लिये व्यापारियों का इस्तेमाल कर कार्पोरेट्स ने माल बेचने के लिये खुद की व्यवस्था बना ली है। अब उन्हे दुकानदारों और व्यापारियों की आवश्यकता नही है। छोटे मोटे व्यापारियोंने अपने व्यापार और देशी उद्योगों के पैरों पर खुद कुल्हाडी मारकर उसे कार्पोरेट के हवाले कर दिया है।
जो तस्वीर उभरकर आ रही है वह अत्यंत भयावह है। दुनिया में खेती का कार्पोरेटीकरण किया जा रहा है। अब उद्योग, व्यापार और खेती सब कुछ कार्पोरेट्स करेंगे। वह इन सभी पर एक के बाद एक अपना कब्जा करते जा रहे है। प्राकृतिक संसाधन, उद्योग और व्यापार पर तो उन्होंने पहले ही कब्जा कर लिया। अब देश के खेती और किसानों की बारी है। जो पहले ही गुलामों की जिंदगी जी रहे है, कार्पोरेट्स उनका अस्तित्व ही मिटाना चाहते है। वह खेती पर कब्जा करना चाहते है ताकि कार्पोरेट उद्योगों के लिये कच्चा माल और दुनिया में व्यापार के लिये जरुरी उत्पादन अपनी सुविधाओं और नीतिओं के अनुसार कर सके। कार्पोरेट खेती के लिये तर्क गढा गया है कि पूंजी की कमी, छोटे जोतो में खेती अलाभप्रद होना, यांत्रिक और तकनीकी खेती करने में अक्षमता के कारण पारिवारिक खेती करनेवाले किसान खेती का उत्पादन बढाने के लिये में सक्षम नही है। 
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