समानता का एक नया उदाहरण
हाल ही में ट्रावनकोर देवास्वम मंदिर की
नियुक्ति समिति ने अपने पुजारियों के रूप में 36 गैर-ब्राह्मणों का चुनाव
किया है। इनमें से छः तो दलित श्रेणी के हैं। भारत के लिए और विशेषकर
दक्षिण भारत के मंदिरों के लिए यह एक अभूतपूर्व कदम है। केरल के धार्मिक
स्थानों पर जातिगत भेदभाव का एक लंबा इतिहास रहा है। ऐसा नहीं है कि वहाँ
गैर-ब्राह्मणों को पुजारियों के रूप में स्थान नहीं दिया जाता है। परन्तु
ये पुजारी अधिकतर छोटे मंदिरों या निजी पूजा स्थलों पर नियुक्त किए जाते
हैं। दरअसल, ट्रावनकोर देवास्वम की नियुक्ति प्रक्रिया संस्थागत रूप से की
जाती है। पुजारी पद के अभ्यार्थियों को एक परीक्षा पास करनी होती है। यह
परीक्षा सभी जातियों के लोगों के लिए होती है। इस परीक्षा में अन्य
संस्थानों की तरह ही आरक्षण नियम लागू किए गए हैं।
केरल का देवास्वम बोर्ड राज्य सरकार के
सभी मंदिरों का प्रबंधक है। चूंकि यहाँ पुजारियों का वेतन सार्वजनिक निधि
से दिया जाता है, इसलिए इस बार चुनाव में आरक्षण को स्थान दिया गया है। अब
देखना यह है कि इन चयनित गैर-ब्राह्मण व दलित पुजारियों को सबरीमाला जैसे
बड़े एवं प्रसिद्ध मंदिरों में भी पुजारी की तरह काम करने दिया जाता है या
नहीं? इन मंदिरों की परंपरा एवं लेखों में गैर-ब्राह्मणों को पुजारी पद से
दूर रखे जाने की बात कही गई है। अतः यह आवश्यक नहीं कि सरकारी या न्यायिक
हस्तक्षेप इस प्रकार की जातिगत भेदभाव की परंपरा को तोड़ने में सफलता
प्राप्त कर ले।
गैर-ब्राह्मण पुजारियों को स्वीकार्य
बनाने के लिए ट्रावनकोर देवास्वम को अपने श्रद्धालुओं का भी मन बदलना होगा,
क्योंकि अभी तक संवैधानिक समानता के अधिकार के आगे रुढ़िवादियों की ही विजय
हुई है। उन्होंने न्यायालय के उस आदेश को चुनौती दी है,, जिसमें पुजारियों
के चयन के लिए योग्यता को आधार माना गया है। अब ट्रावनकोर देवास्वम ने
न्यायालय के योग्यता वाले आदेश से एक कदम आगे बढ़कर आनुपातिक प्रतिनिधित्व
को अपनाकर एक नया उदाहरण प्रस्तुत कर दिया है। पूरा देश उसके इस फैसले के
परिणामों की एक तरह से प्रतीक्षा कर रहा है।
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित।
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