धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जीवन का ‘‘प्राकृतिक नियम’
कालिदास रंगालय में हुई ‘‘समकालीन चुनौतियां और चार पुरु षार्थ की अवधारणा’ विषय पर परिर्चचा उपभोक्तावाद के कारण, समाज में विचारों की विविधता का लोप : पाठक
द सहारा न्यूज ब्यूरोपटना। कालिदास रंगालय के सेमिनार हॉल में ‘‘समकालीन चुनौतियां और चार पुरु षार्थ की अवधारणा’ विषय पर परिर्चचा का आयोजन किया गया। कार्यक्रम का आयोजन बुधवार को फाउंडेशन फॉर आर्ट कल्चर एथिक्स एंड साइंस (फेसेस) और साउथ एशियन डायलॉग्स ऑन इकोलॉजिकल डेमोक्रेसी (सेडेड), नई दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में किया गया। कार्यक्रम में राजबल्लभ ने डॉ. रविन्द्र कुमार पाठक की पुस्तक ‘‘चार पुरु षार्थ, जीवन एवं मृत्यु’ का परिचय देते हुए परिर्चचा का ‘‘विषय-प्रवेश’ कराया। मुख्य वक्ता डॉ. रविन्द्र कुमार पाठक ने अपने वक्तव्य में स्पष्ट किया कि भारतीय वांग्मय में चार पुरु षार्थ (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) की जो अवधारणा है वह कोई धर्म विशेष का सूत्र नहीं है। बल्कि मानव के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को सम्पूर्णता प्रदान करने के लिए निर्मित व्याहारिक सूत्र हैं जिन्हें जीवन का ‘‘प्राकृतिक नियम’ कहा जा सकता है। अपने व्याख्यान में उन्होंने वर्तमान समय की चुनौतियों की भी र्चचा की और कहा कि उपभोक्तावाद के कारण, समाज में विचारों की विविधता का लोप होता जा रहा है।मुख्य अतिथि डॉ. विजय प्रताप ने कहा कि चार पुरु षार्थ मानव जीवन के चार आयाम हैं जिनका अनुशीलन इस जीवन में मनुष्य द्वारा किया जाता है। यदि इन चार पुरु षार्थो को सही अर्थ में समझ लिया जाए तो एक सुखी और सफल जीवन को जीया जा सकता है। सामाजिक व्यवस्था पर टिप्पणी करते हुए कहा कि करीब-करीब सभी धर्मो में यह अवधारणा है कि मनुष्य सृष्टि के उपभोग के लिए पैदा हुआ है। इसलिए मानव केन्द्रित क्रिया कलापों से पर्यावरण को इतनी हानि हुई और हो रही है। धर्म गुरुओं और प्रबुद्ध वर्ग का आह्वान करते हुए उन्होंने कहा, कि समय के साथ इस अवधारणा में परिवर्तन करना जरूरी है। हमें यह बताना होगा कि हम प्रति में प्रदत्त संसाधनों का प्रयोग करने के लिए नहीं बने। बल्कि हम उसी प्रकृति का हिस्सा हैं, जिसके संसाधनों का दोहन हम करते हैं। डॉ. उमेश चन्द्र द्विवेदी ने इस समाज को बांटने के विषय पर एक महत्वपूर्ण बात कही कि समाज को किसी भी आधार पर बांटने की प्रक्रिया का कारण सामाजिक कम और राजनैतिक ज्यादा है। देखा जाए तो सबसे अधिक आपसी वैमनस्य तो भाइयों में होता है जो एक ही मां-बाप की पैदाईश होते हैं। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि सनातन धर्म के नियमों को हिन्दू धर्म के रूप में संकीर्ण चश्मे से न देखा जाए। बल्कि यह समस्त मानव जाति के धर्म के रूप में प्रतिष्ठित हो। क्योंकि यह जीवन जीने के मूलभूत नियमों का संग्रह है। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए डॉ. महेन्द्र नारायण कर्ण ने कहा कि भारतीय संस्कृति बहुत ही उदार संस्कृति रही है। इसमें नियंतण्र तत्व मौजूद रहे हैं। उन्होंने इस प्रकार की परिर्चचा को युवाओं के लिए उपयोगी बताया। उन्होंने समाज बांटने की राजनैतिक प्रक्रिया पर कटाक्ष करते हुए कहा कि बिहार ही एकमात्र राज्य है जहां दलित को भी दो श्रेणियों- दलित और महादलित में बांटा गया है। सभा का संचालन अवधेश झा और धन्यवाद ज्ञापन फेसेस की सचिव सुनीता भारती ने किया। कार्यक्रम में इतिहासकार डॉ. चितरंजन प्रसाद सिन्हा सहित अन्य लोग भी मौजूद थे।
more info. click here
*********
No comments:
Post a Comment