Mountains of garbage
Date:07-09-17
Mountains of garbage
Waste management rules continue to be ignored even a year after they were notified
EDITORIAL
The collapse of a
great wall of garbage in east Delhi’s Ghazipur area, sweeping people and
vehicles into a nearby canal, is a stark reminder that India’s
neglected waste management crisis can have deadly consequences. More
than a year after the notification of the much-delayed Solid Waste
Management Rules, cities and towns are in no position to comply with its
stipulations, beginning with the segregation of different kinds of
waste at source and their scientific processing. Neither are urban local
governments treating the 62 million tonnes of waste generated annually
in the country as a potential resource. They have left the task of value
extraction mostly to the informal system of garbage collectors and
recyclers. Improving on the national record of collecting only 80% of
waste generated and being able to process just 28% of that quantum,
requires behaviour modification among citizens and institutions. But
what is more important is that the municipal bodies put in place an
integrated system to transport and process what has been segregated at
source. The Swachh Bharat programme of the Centre has focused too
narrowly on individual action to keep streets clean, without concurrent
pressure on State and municipal authorities to move closer to scientific
management by the deadline of April 2018 set for most places, and
arrest the spread of pollution from trash.
In the absence of stakeholders at the
local body level, recoverable resources embedded in discarded materials
are lost due to dumping. Organic refuse, which forms about 50% of all
garbage, readily lends itself to the generation of compost or production
of methane for household use or power generation. But it is a major
opportunity lost. Organic waste that could help green cities and feed
small and affordable household biogas plants is simply being thrown
away. It is also ironic that while some countries such as Rwanda and
Kenya have introduced stiff penalties for the use of flimsy plastic
bags, India is doing little to prevent them from drifting into suburban
garbage mountains, rivers, lakes and the sea, and being ingested by
cattle feeding on dumped refuse. A new paradigm is needed, in which bulk
waste generators take the lead and city managers show demonstrable
change in the way it is processed. There has to be a shift away from
large budgets for collection and transport by private contractors, to
the processing of segregated garbage. As the nodal body for the
implementation of the new rules, the Central Pollution Control Board
should put out periodic assessments of the preparedness of urban local
bodies in the run-up to the deadline. Without a rigorous approach, the
national problem of merely shifting city trash to the suburbs, out of
sight of those who generate it, will fester and choke the landscape.
Considering that waste volumes are officially estimated to grow to 165
million tonnes a year by 2030, many more suburbs are bound to be
threatened by collapsing or burning trash mountains.
Date:07-09-17
नहीं सूझ रहा विकल्प
अभिषेक कुमार
शहरों में साफ-सफाई की व्यवस्था को लेकर
केंद्र सरकार एक तरफ सर्वेक्षण करवाती रही है, जागरूकता अभियान चलाती है,
तो दूसरी तरफ शहरों में ही लगे कूड़े के ढेर उसके सारे प्रयासों को धता
बताते हैं। हाल में दिल्ली के गाजीपुर स्थित कूड़े के पहाड़ में हुए
विस्फोट और भूस्खलन जैसे हालात ने दो जानें लील लीं और कई वाहन क्षतिग्रस्त
कर दिए तो सरकार-प्रशासन को अहसास हुआ कि शहर के बीचों-बीच जमा होता कचरा
कितनी अराजकता पैदा कर सकता है।विडम्बना यह है कि 70 एकड़ में फैले 50 मीटर
से ज्यादा ऊंचे कूड़े के पहाड़ का कोई विकल्प अभी भी दिल्ली सरकार को नहीं
सूझा है। विकल्प खोजना आसान है भी नहीं क्योंकि हमने पश्चिमी देशों से यूज
एंड रो का रिवाज तो सीख लिया है। लेकिन उनकी तरह यह नहीं सीखा कि
कूड़ा-करकट कैसे और कहां फेंका जाए, जिससे कि वह देश, समाज, जनता के लिए
अभिशाप न बन जाए। शहरों में ठोस कूड़े-कचरे (सॉलिड वेस्ट) को ठिकाने लगाने
के इंतजामों के बारे में रिपोर्ट है कि हमारे देश के ज्यादातर शहरों में
कचरा निष्पादन के पुख्ता इंतजाम नहीं हैं। आज भी शहरी कचरे का 90 फीसद
हिस्सा कहीं भी फेंक दिया जाता है। प्रशासन कूड़े को बटोर कर बिना किसी
समुचित नियोजन के लैंडफिल के नाम पर खुले में कोई जगह तय कर देता है, जो
आसपास के कई किलोमीटर इलाके में रहने वाले नागरिकों की सेहत और आबोहवा के
लिए मुसीबत बन जाता है। दिल्ली में कुल तीन लैंडफिल हैं जो पूरी तरह भर
चुके हैं। मुंबई में देवनार लैंडफिल इकलौती ऐसी जगह है। लखनऊ में शिवरी
गांव स्थित लैंडफिल इसके लिए जाना जाता है। सिर्फ इन तीन शहरों में ही सबसे
ज्यादा बदइंतजामी दिल्ली में दिखती है। मुंबई और लखनऊ में कचरे को छांटकर
अलग किया जाता है ताकि उसकी रिसाइक्लिंग की सुविधा हो। लखनऊ में शिवरी गांव
के लैंडफिल में पहुंच कचरे में से सॉलिड वेस्ट की छंटाई होती है। उसमें से
एकदम बेकार कचरा जमीन में खाद बनाने के लिए दबाया जाता है। शेष बचा 25
प्रतिशत कचरा रिसाइक्लिंग के लिए भेजा जाता है। लैंडफिल तक पहुंचने वाला
कचरा कई लोगों की रोजी-रोटी का जुगाड़ भी करता है।मोहल्लों-कॉलोनियों और
आवासीय सोसाइटियों से कचरा उठाने, कचरे में कागज, कांच, धातु, सिंथेटिक व
प्लास्टिक से बनी चीजें, चमड़े के सामान, दवाएं, क्रीम, अनाज-सब्जी, साबुन,
डिटज्रेट आदि में से बच्चे-नौजवान काम की चीजें छांटते हैं और काफी कचरा
खुले में सड़क किनारे जला भी देते हैं। इससे भयानक प्रदूषण होता है। जाहिर
है कि कूड़े के निस्तारण के आधुनिक प्रबंधों की जरूरत है, जिसमें शहरी कचरा
न सिर्फ समुचित तरीके से ठिकाने लगाया जा सके बल्कि उसका ऐसा ट्रीटमेंट
हो, जिससे भी बिना कोई प्रदूषण फैलाए गायब किया जा सके। इस बीच देश में
स्मार्ट सिटी बनाने की परियोजना शुरू हो चुकी है पर कूड़े के निष्पादन के
लिए गुजरात की स्मार्ट सिटी ‘‘गिफ्ट’ जैसी व्यवस्था सभी जगह बन पाएगी-इसमें
संदेह है। अहमदाबाद के नजदीक देश की इस पहली स्मार्ट सिटी में 12 किमी.
लंबी एक भूमिगत सुरंग बनाई जा रही है। इस सुरंग से पूरे शहर के लिए पानी की
पाइपलाइन, बिजली की लाइन, ऑप्टिकल फाइबर, सीवर व अन्य चीजों का जाल बिछाया
जा रहा है। घरों और दफ्तरों में पैदा होने वाले ठोस कचरे को सुरंग के भीतर
मौजूद एक पाइपलाइन के जरिए 90 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चूसने का
इंतजाम किया जा रहा है, जहां से कूड़े को सीधे कचरा निष्पादन प्लांट में
भेजा जाएगा। हमें विदेशी उदाहरणों की तरफ देखने की जरूरत नहीं है, बल्कि
गिफ्ट और मौजूदा वक्त में इंदौर, भोपाल, विशाखापत्तनम जैसे शहरों की तरफ
देखना होगा, जिन्होंने केंद्र सरकार के हालिया स्वच्छ सर्वेक्षण में
साफ-सफाई के मामले में बड़ा उलटफेर किया है। इन शहरों ने स्वच्छता के
मूल्यांकन के लिए पांच कसौटियों-कचरा जमा करने की प्रक्रिया, ठोस कचरे का
प्रबंधन, शौचालय निर्माण, सफाई की रणनीति और इस पर लोगों से संवाद के
तरीके-इन पर रैंकिंग में ऊंचा स्थान हासिल करके एक मिसाल कायम की है। इंदौर
में स्वच्छता के लिए बड़े पैमाने पर और योजनाबद्ध प्रयास किए गए। ध्यान
रहे कि देश के कई शहर कूड़े के ढेर के आगे निरु पाय हैं, तो इसकी एक बड़ी
वजह यह है कि वहां के स्थानीय निकाय काहिली, भ्रष्टाचार और क्षुद्र राजनीति
से ग्रस्त हैं। मगर इसकी काट तो ढूंढ़नी ही होगी।
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