Friday 8 September 2017

भारत के धनी और निर्धन राज्यों में बढ़ रही है खाई


Date:08-09-17

भारत के धनी और निर्धन राज्यों में बढ़ रही है खाई

अर्थव्यवस्था…द इकोनॉमिस्ट ने कहा- सस्ते श्रम और टेक्नोलॉजी के बावजूद गरीब राज्यों में तेजी से तरक्की न होना अर्थशास्त्रियों के लिए पहेली। कई राज्य ऐसे हैं, जहां कंपनियों को काम करने में कठिनाइयां आती हैं।
देशों के लिए धनी होना आसान हो जाता है यदि उनके पड़ोसी पहले से ही धनी हों। पूर्वी एशिया की आर्थिक तरक्की की तुलना हंसों के समूह से की जाती रही है, जिसमें सबसे आगे जापान और आखिर में म्यांमार जैसे पिछड़े देश हैं। यही बड़े देशों में भी दिखता है। मसलन पिछले दशक में चीन के धनी प्रांतों की तुलना में गरीब प्रांतों ने तेजी से आर्थिक तरक्की दिखाई है। भारत में मामला अलग है। एक स्तर पर आना तो दूर, इसके राज्यों में असमानता लगातार बढ़ रही है। टैक्स व्यवस्था में हाल के आमूल बदलाव से स्थिति और खराब हो सकती है। मुंबई के कुछ पेंटहाउस और बेंगलुरू में स्टार्टअप ऑफिस छोड़ दें तो देश के सारे हिस्से वैश्विक पैमाने पर तुलनात्मक रूप से गरीब हैं। वैसे देश की 1.30 अरब आबादी दुनिया की आबादी का तीन और चार दशमांश होता है। जहां प्रतिव्यक्ति आय (क्रय शक्ति के हिसाब से) 6600 डॉलर (4.23 लाख रुपए) है पर औसत में बड़ा अंतर नहीं दिखता। केरल में औसत व्यक्ति की सालाना आय 9,300 डॉलर (करीब 6 लाख रुपए) है, जो यूक्रेन से अधिक है, और वैश्विक स्तर पर मध्यस्तर की है। लेकिन, 2,000 डॉलर (1.29 लाख रुपए) की सालाना प्रतिव्यक्ति आय के साथ 12 करोड़ की आबादी वाला जमीन से घिरा बिहार वैश्विक स्तर पर एकदम नीचे अफ्रीका का माली या चाड जैसे देशों के साथ है। यह फर्क बढ़ता जा रहा है। विचार समूह आईडीएफसी के प्रवीण चक्रवर्ती और विवेक देहेजिया ध्यान दिलाते हैं कि 1990 में तीन सबसे धनी बड़े राज्यों की आय तीन गरीबतम राज्यों की तुलना में 50 फीसदी ज्यादा थी। मोटेतौर पर यह फर्क उतना ही था जितना अमेरिका या यूरोपीय संघ में आज है अौर चीन की तुलना में बेहतर था। अब वे तीनों राज्य तीन गुना धनी हैं। दुनिया के धनी इलाकों में हाल के दशकों में आय में अंतर बढ़ा है लेकिन, भारत का अनुभव अर्थशास्त्रियों को चकरा देता है। गरीब इलाके धनी इलाकों में विकसित टेक्नोलॉजी का फायदा उठाते हैं, जिसमें ट्रेन से लेकर मोबाइल तक की सुविधाएं हैं। गरीब इलाकों के वर्कर कम मजदूरी स्वीकार कर लेते हैं और इसलिए कंपनियां वहां नई फैक्ट्रियां लगाती हैं। यदि माल और लोगों की आवाजाही की बाधाएं दूर की जाएं तो गरीब राज्यों का धनी राज्यों के बराबर आने की प्रक्रिया और तेज हो जाती है। चीन में ऐसा ही हुआ। एक तो बाजार व फैक्ट्रियां वहां गईं जहां मजदूरी कम थी और दूसरा सरकार ने गरीब इलाकों में इंफ्रास्ट्ररक्चर पर भारी निवेश किया। भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम ने लिखा था कि राज्यों में बढ़ता फर्क उनके लिए ‘बड़ी पहेली’ है। 1991 के छोटे से उदारीकरण के दौर ने तीव्र तरक्की के फायदों को असमान ढंग से वितरित करके शुरू में भूमिका निभाई होगी लेकिन, असमानता का वह दौर अब तक स्वत: ठीक हो जाना चाहिए। एक थ्योरी खराब इंफ्रास्ट्रक्चर, लालफीताशाही और सांस्कृतिक बैरियर को दोष देती है। एक राज्य से दूसरे में माल पहुंचाना निर्यात जितना थकाने वाला काम हो सकता है। समानता लाने वाली वृद्धि का जनक आंतरिक आप्रवास सांस्कृतिक व भाषा संबंधी बाधाओं का शिकार होता है।
धनी दक्षिणी राज्यों के विपरीत उत्तर के गरीब राज्यों में हिंदी बोली जाती है। खान-पान की आदतें भी इतनी अलग हैं कि प्रवासी परेशान हो जाता है। अपने गृह प्रदेश के बाहर सब्सिडी व अन्य फायदे लेना कठिन होता है। सुब्रह्मण्यम इन तर्कों को अतिशयोक्तिपूर्ण मानते हैं। वे कहते हैं, भारत में चीन जितना आप्रवास न भी हो पर फिर भी काफी है और बढ़ रहा है। अंतर-राज्यीय व्यापार अच्छा है, जिससे सीमाओं पर ज्यादा अड़चनें न होने का पता चलता है। दूसरी थ्योरी विकास के भारतीय मॉडल को देखती है। सुब्रह्मण्यम दलील देते हैं कि आर्थिक तरक्की श्रमबल आधारित मैन्यूफैक्चरिंग की बजाय आईटी जैसे कौशल पर केंद्रित हो गई है, जो समानता में बाधक है। श्रम कितना ही सस्ता हो लेकिन, शायद नर्धन इलाकों में कौशल का आधार कमजोर होने से वे धनी प्रतिदंद्वियों के यहां जॉब नहीं ले पाते। मोटेतौर पर यही स्पष्टीकरण सही है, वजह है कमजोर शासन। जैसे बिहार में मजदूरी की निम्न दरें आकर्षित करती हैं लेकिन, कई कंपनियों का निष्कर्ष है कि फायदे की तुलना मेें वहां की कठिनाइयां अधिक हैं। यदि यह सही है तो जीएसटी के आने के बाद तो स्थिति और खराब हुई होगी। इससे राज्यों को कुछ वित्तीय स्वायत्तता छोड़नी पड़ी है जैसे निवेशकों को आकर्षित करने के लिए टैक्स में छूट देने का अधिकार। चक्रवर्ती कहते हैं कि इससे गरीब राज्यों का धनी वर्ग में आना और कठिन हो जाएगा।सुब्रह्मण्यम ध्यान दिलाते हैं कि समानता लाने वाली ताकतें मजबूत हो रही हैं। आमदनी चाहे गिरी हो लेकिन, मानव विकास सूचकांक पर शिशु मृत्युदर और अपेक्षित आयु के मामले में वे तेजी से उस स्तर पर बढ़ रहे हैं,जहां तमिलनाडु जैसे धनी राज्य पहुंच चुके हैं। युवा आबादी बड़े पैमाने पर गरीब राज्यों के लिए अवसर हैं, बशर्ते वे पर्याप्त रोजगार पैदा कर सकें। आर्थिक तरक्की में समान स्तर ऐसे देश में वांछित है, जहां पिछड़े राज्यों में दुनिया के निर्धनतम लोग रहते हैं। लेकिन, इससे राजनीतिक खतरा भी दूर हो सकता है। वह यह कि धनी राज्य सोच सकते हैं कि इतने गरीब राज्यों के साथ रहना क्या उनके हित में है? कई राज्यों में क्षेत्रीय राजनीतिक दल राष्ट्रीय दलों से स्पर्धा करते हैं और संघीय सरकार में उनका ज्यादातर प्रभुत्व रहा है। वे ऐसी किसी बात को खारिज करते हैं। भारतीय राज्यों की भिन्न दिशा में जाने वाली तरक्की पर प्रश्न चकराने वाले हैं। वे और भी गंभीर हो सकते हैं।

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