Date:08-09-17
फायदे की फसल
संपादकीय
मध्य प्रदेश सरकार ने बाजार में न्यूनतम
समर्थन मूल्य हासिल न कर पाने वाले किसानों की नकद क्षतिपूर्ति करने की
योजना बनाई है जो स्वागतयोग्य है। इस योजना के तहत राज्य सरकार प्रदेश तथा
अन्य राज्यों की पिछली बाजार दरों के आधार पर एक औसत मूल्य तय करेगी। इसके
बाद किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य और आदर्श मूल्य में जो भी ज्यादा होगा
उसका भुगतान किया जाएगा। ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए किया जा रहा है ताकि
किसानों को नुकसान नहीं हो। यह बिलकुल संभव है कि देशव्यापी स्तर पर लागू
न्यूनतम समर्थन मूल्य क्षेत्र विशेष के किसानों के लिए सही साबित न हो।
हालांकि शुरुआत में यह योजना चुनिंदा दलहन और तिलहन पर ही लागू होगी। ये वे
फसलें हैं जहां गेहूं और चावल के उलट सरकारी खरीद आमतौर पर कम रहती है।
बाद में इस योजना को तमाम प्रमुख फसलों पर लागू किया जा सकता है। किसानों
की आर्थिक दुर्दशा की एक बड़ी वजह यह भी है कि फसल कटने के बाद उनको उसकी
उचित कीमत नहीं मिल पाती है। ऐसे में कर्ज का बोझ, आत्महत्या के मसले और
कर्ज माफी तथा आरक्षण जैसी मांगें सामने आने लगती हैं। कई मामलों में तो
उत्पादकों को जो कीमत मिली वह उनकी उत्पादन लागत से भी कम थी। इस वर्ष भी
जबरदस्त फसल उत्पादन के चलते ऐसा ही हुआ। इस साल बंपर उत्पादन के चलते
अधिकांश जिंसों की कीमत औंधे मुंह गिर गईं। न्यूनतम समर्थन मूल्य की
अवधारणा सन 1960 के दशक में हरित क्रांति से जुड़ी है। यह मुख्य तौर पर
भारतीय खाद्य निगम और राज्यों की एजेंसियों द्वारा प्रमुख अनाज की खरीद पर
निर्भर करती है। यह खरीद एक तयशुदा मूल्य पर की जाती है।
बहरहाल देश में यह व्यवस्था मोटे तौर
पर गेंहू और चावल तथा कुछ हद तक कपास और गन्ने की फसल पर लागू है। वह भी
उन्हीं राज्यों में जहां खरीद, ढुलाई और भंडारण की सुविधाएं हैं। अन्य
फसलों तथा अन्य जगहों पर यह पूरी तरह अप्रासंगिक है और उत्पादकों को न
चाहते हुए भी बेहद कम कीमत पर उपज बेचनी होती है। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि
अधिकांश किसान अभी तक इसके बारे में ठीक से जानते तक नहीं। राष्ट्रीय नमूना
सर्वेक्षण संगठन के जुलाई 2012 और जून 2013 के बीच जुटाए आंकड़ों से पता
चला कि केवल 32 फीसदी धान उगाने वाले ही सरकार की न्यूनतम समर्थन मूल्य
योजना के बारे में जानते हैं। इसमें भी महज 13.5 फीसदी किसान ही अपनी उपज
बेच पाते हैं। ऐसे में वक्त आ गया है कि न्यूनतम कीमत की आश्वस्ति देने
वाली इस योजना को ऐसी विधि से बदल दिया जाए जहां बाजार से छेड़छाड़ नहीं
हो। ऐसा करते हुए किसानों को कम कीमत के जोखिम से बचाना भी जरूरी है। ऐसा
कदम इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि जोखिम प्रबंधन के अन्य उपाय मसलन फसल बीमा
और वायदा कारोबार आदि ज्यादा सफल नहीं हो सके हैं। इतना ही नहीं ‘एक
राष्ट्र एक एमएसपी’ की मौजूदा अवधारणा मूल रूप से गलत है क्योंकि उत्पादन
लागत क्षेत्रवार आधार पर अलग-अलग है। बल्कि किसान दर किसान इसमें फर्क आ
जाता है। नीति आयोग के कार्यबल ने 2015 में कीमत में अंतर का भुगतान करने
की वकालत कर दी थी। उसने कृषि बाजार में आई विसंगति और गेहूं तथा चावल की
ज्यादा उपज के लिए एमएसपी व्यवस्था को जिम्मेदार ठहराया था। इसके अलावा
इसके चलते सरकारी गोदामों में भी अनाज का अनावश्यक भंडारण देखने को मिला।
इसके रखरखाव और भंडारण पर भारी खर्च करना पड़ा। इसमें नुकसान भी हुआ। नई
प्रस्तावित व्यवस्था में अनाज का रखरखाव सरकार को नहीं करना पड़ेगा। जबकि
इसके जरिये देश भर में प्रमुख फसलों को प्रभावी मूल्य समर्थन दिया जा सकता
है। इससे सभी किसान लाभान्वित होंगे।
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