Date:08-11-17
न्यायपालिका को ही मिले न्यायाधिकरणों की कमान
सोमशेखर सुंदरेशन, (लेखक अधिवक्ता एवं स्वतंत्र परामर्शदाता हैं)
विधि आयोग ने भारत में न्यायाधिकरणों के
वैधानिक ढांचे के आकलन पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। सर्वोच्च न्यायालय ने
पिछले साल आयोग को विचार के लिए जिन पांच मुद्दों को प्रेषित किया था, यह
रिपोर्ट उन्हीं पर केंद्रित है। पहला, न्यायाधिकरणों के गठन को कई बार
संवैधानिक चुनौती दी जा चुकी है। न्यायाधिकरणों के गठन को अक्सर सही ठहराया
गया है लेकिन एक मूलभूत मसला चर्चा से बाहर रहा है। हमारे संवैधानिक
स्वरूप में शक्तियों का पृथक्करण कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका के
बीच किया गया है।
यह शासन संचालन में नियंत्रण एवं संतुलन
का एक अहम बुनियादी तत्त्व है। हालांकि अब न्याय देने का बड़ा जिम्मा
अदालतों के स्थान पर न्यायाधिकरणों को हस्तांतरित हो चुका है लेकिन ये
अधिकरण न्यायपालिका के बजाय सरकार (कार्यपालिका) द्वारा संचालित होते
हैं।अधिकरणों के सदस्यों की नियुक्ति का तरीका, प्रदर्शन की समीक्षा, करियर
प्रगति की संभावनाएं, मेहनताना और सेवा शर्तें- ये सभी न्यायपालिका के
दायरे से बाहर होते हैं। न्यायाधिकरणों पर आधारित न्याय व्यवस्था में यह
सबसे बड़ी समस्या है। इस मुद्दे का हल निकाले बगैर हितों के टकराव की
समस्या पैदा होगी। मसलन, उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश को महाभियोग की
प्रक्रिया के ही जरिये संसद द्वारा हटाया जा सकता है। न्यायिक स्वतंत्रता
के लिए संविधान में यह व्यवस्था की गई थी।
लेकिन न्यायाधिकरणों के सदस्यों की
नियुक्ति एवं सेवा शर्तों के मामले में स्थिति इसके ठीक उलट है। आमतौर पर
सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को ही इन अधिकरणों का सदस्य नियुक्त किया जाता है
लेकिन उनकी स्थिति एक सरकारी कर्मचारी जैसी हो जाती है और उन्हें हटाने की
भी कोई जटिल प्रक्रिया नहीं होती है। शक्तियों के पृथक्करण में अवरोध होना
संभवत: न्यायाधिकरणों की कार्यप्रणाली का सबसे बड़ा असंवैधानिक पक्ष है।
दूसरा, उच्च न्यायालयों के क्षेत्राधिकार से कई बिंदुओं के छिन जाने और
न्यायाधिकरणों के सुपुर्द कर दिए जाने से न्यायपालिका पर एक गंभीर
दीर्घकालिक नुकसान देखने को मिल रहा है। न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले
में अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए न्यायपालिका काफी सजग रही है
लेकिन नियुक्ति के बाद इन न्यायाधीशों के कामकाज को सुरक्षा देने में उसकी
खास रुचि नहीं रही है। लगातार कई कानूनों ने न्यायाधिकरणों का
क्षेत्राधिकार बढ़ाने का प्रावधान किया है और दीवानी अदालतों का अधिकार कम
होता गया है। मसलन, बिजली अधिकरण या प्रतिभूति अपीलीय अधिकरण के फैसलों के
खिलाफ अपील सीधे सर्वोच्च न्यायालय में की जा सकती है जो उच्च न्यायालयों
के क्षेत्राधिकार को कम करने का ही काम करता है।
इस तरह उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को
वाणिज्यिक एवं नियामकीय महत्त्व वाले मामलों की सुनवाई करने का मौका ही
नहीं मिल पाता है। गंभीर किस्म के वाणिज्यिक एवं नियामकीय मामले उच्च
न्यायालय के परिक्षेत्र से बाहर ही रह जाते हैं। इसके विरोध में यह तर्क
दिया जाता है कि किसी सरकार या नियामक के कदमों की संवैधानिक वैधता को
चुनौती उच्च न्यायालयों में ही दी जा सकती है। हालांकि किसी अधिकरण के
क्षेत्राधिकार वाले मामले में बहुत कम मौकों पर ही उच्च न्यायालय में रिट
याचिका दायर की जाती है। अधिकरण में वैकल्पिक प्रभावी निदान की उपलब्धता के
मुद्दे को सबसे पहले चुनौती दी जाती है और उस बिंदु पर ही न्यायालय को तय
करने में कई हफ्ते लग जाते हैं। जब उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सर्वोच्च
न्यायालय में पहुंचते हैं तो उन्हें इन अधिकरणों के फैसलों के खिलाफ दायर
अपीलों पर भी सुनवाई करनी होती है लेकिन अपने लंबे न्यायिक करियर में
उन्हें ऐसे मामलों पर गौर करने का कोई व्यावहारिक अनुभव ही नहीं होता है।
वही न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय से सेवानिवृत्त होने के बाद किसी अधिकरण
का सदस्य बना दिए जाते हैं तो उन्हें खास क्षेत्र में नए सिरे से शुरुआत
करनी होती है। यह विशेषीकृत मसलों के लिए अधिकरण बनाने की मूल धारणा के ही
प्रतिकूल होता है। अंत में, न्यायपालिका के कार्यक्षेत्र में कटौती करने का
काम केवल न्यायाधिकरण का गठन करके ही नहीं किया जा रहा है।
नियामकीय संस्थाओं का गठन और उन्हें
अद्र्ध-न्यायिक शक्तियां देना भी अदालतों के क्षेत्राधिकार को कम करता है।
मसलन, दीवानी अदालतों को बाजार नियामक सेबी से संबंधित मामलों में कोई
अधिकार नहीं दिया गया है। सेबी अधिनियम, 1992 के मुताबिक अपीलीय अधिकरण के
फैसलों के खिलाफ केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही अपील की जा सकती है। यह
प्रवृत्ति इतनी नुकसानदेह हो चुकी है कि राज्य विधानसभाएं भी ऐसे कानून
बनाने लगी हैं जिनमें अपील पर सुनवाई केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही होने
का जिक्र होता है। राज्य स्तर के अधिकरणों में भी उच्च न्यायालयों को
सुनवाई का अधिकार नहीं देने से सर्वोच्च न्यायालय पर काम का बोझ ही बढ़ता
है। ये सारे पहलू न्यायाधिकरणों से संबंधित डिजाइन में बुनियादी खामी की
तरफ ही इशारा करते हैं। ऐसी स्थिति में विधि आयोग की रिपोर्ट इन अधिकरणों
के बारे में व्यापक चर्चा का मौका देती है। रिपोर्ट में पेश सुझाव व्यापक
तौर पर अधिकरणों के गठन और उनकी निगरानी से जुड़े पहलुओं से ही संबंधित
हैं। आयोग ने विधि एवं न्याय मंत्रालय के तहत एक नोडल एजेंसी बनाकर उसी को
इन अधिकरणों की निगरानी का दायित्व सौंपने की बात कही है। इस समस्या की
जड़ें गहरी हैं और व्यापक कदमों की जरूरत है। अधिकरणों की निगरानी का
जिम्मा कार्यपालिका के बजाय न्यायपालिका को सौंपने और शासन के अनिवार्य अंग
के तौर पर न्यायपालिका को उसकी अहम भूमिका देकर ही इस स्थिति को दुरुस्त
किया जा सकता है।
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