Tuesday, 28 February 2017

सस्ती दवा चुनावी मुद्दा क्यों नहीं

सस्ती दवा चुनावी मुद्दा क्यों नहीं

http://www.amarujala.com/columns/opinion/why-not-inexpensive-drug-election-issue  

अमेरिका के नेतृत्व में ट्रांस-प्रशांत साझेदारी (टीपीपी) समझौते की समाप्ति के बाद सबकी नजरें एशिया-प्रशांत क्षेत्र में जापानी बंदरगाह वाले शहर कोबे पर केंद्रित हो गईं, जहां इस हफ्ते 16 देशों के प्रतिनिधि क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी समझौते (आरसीईपी) के अगले चरण की बातचीत के लिए इकट्ठा हुए।


आज की तारीख में आरसीईपी दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के नेतृत्व में चलने वाली प्रक्रिया का एक संघ है। इसके सदस्यों में दस आसियान देशों- ब्रुनेई, कंबोडिया, लाओस, मलयेशिया, म्यांमार, इंडोनेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड और वियतनाम के साथ-साथ छह एशिया-प्रशांत देश-ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिण कोरिया, जापान, चीन और भारत भी शामिल हैं। 

इन दिनों पूरे देश में चुनावी और राजनीतिक बयानबाजी तमाम बहसों पर हावी है और सुर्खियां बटोर रही है। क्या किसी को अतंरराष्ट्रीय व्यापार पर कोबे में होने वाले पांच दिवसीय सम्मेलन पर ध्यान नहीं देना चाहिए? ज्यादातर लोगों को शायद यह सवाल अजीब लगेगा। लेकिन इस सम्मेलन का लोगों के जीवन और मृत्यु पर दूर-दूर तक प्रभाव पड़ सकता है।

पिछले दिनों दिल्ली में व्यापार नियमों के भविष्य पर एक गोलमेज सम्मेलन हुआ, जो हमें बताता है कि किस तरह से यह हमें प्रभावित करेगा और क्यों हमें सतर्क रहना चाहिए। मुक्त व्यापार समझौता मंच और द इकोनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में भारत द्वारा अन्य देशों के साथ किए जा रहे व्यापार समझौते से संबंधित कई मुद्दों पर रोशनी डाली गई। व्यापार सौदे सामान्यतः व्यापार और वाणिज्य के बारे में होते हैं, लेकिन समझौते के दौरान पिछले दरवाजे से परस्पर लेन-देन की बातें होती हैं। इस दौरान कई अन्य संबंधित मुद्दों को उठाया जाता है, जैसे बौद्धिक संपत्ति अधिकार के मुद्दे, जिनके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। यह सस्ती दवाओं तक हमारी पहुंच को प्रभावित कर सकता है।

कोबे बैठक महत्वपूर्ण है, क्योंकि डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के बाद पहली बार आरसीईपी के वार्ताकार मिले हैं और अमेरिका ने टीपीपी से अपना हाथ खींच लिया है। आरसीईपी समर्थक इस बात से काफी उत्साहित हैं कि टीपीपी की विफलता इक्कीसवीं सदी में आरसीईपी को मौलिक एशिया-प्रशांत व्यापार समझौते का अवसर प्रदान करेगा, हालांकि विभिन्न मुद्दों पर अब भी सहमति का अभाव है।

चूंकि ट्रांस-प्रशांत साझेदारी समझौता खत्म हो गया है, इसलिए आरसीईपी के धनी सदस्य टीपीपी जैसा समझौता चाहते हैं, जो बौद्धिक संपदा अधिकार जैसे मुद्दों पर मजबूत कानून प्रदान करे, खासकर दवा उद्योग के लिए। सस्ती जेनरिक दवाओं तक पहुंच भारत समेत कई आसियान देशों के लिए एक बड़ा मुद्दा है, लेकिन जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देश ऐसा मजबूत कानून चाहते हैं, जो पेटेंट के अधिकारों और बड़ी बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के मुनाफे की रक्षा करे।

एशिया-प्रशांत क्षेत्र में आरसीईपी का ज्यादातर विरोध इस भय के कारण हो रहा है कि यह एक ऐसा समझौता बन जाएगा, जो पेटेंट की शर्तों को लंबा कर देगा तथा सस्ती दवाओं के उत्पादन को ज्यादा खर्चीला और मुश्किल बना देगा। दिल्ली में गोलमेज सम्मेलन के दौरान एक अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन डॉक्टर्स विदाउट बोर्डर्स के साथ काम करने वाली वकील लीना मेंघानी बिल्कुल मुखर थीं। उनका संगठन सस्ती दवाओं की पहुंच के लिए अभियान चलाता है और दुनिया भर में लोगों के इलाज के लिए गुणवत्तापूर्ण सस्ती दवाओं पर निर्भर है, जिनमें से अधिकतर भारत में बनती हैं। इस संगठन ने जापान और दक्षिण कोरिया की सरकारों से अपील की कि सस्ती जेनरिक दवाओं तक लोगों की पहुंच को बाधित करने वाले प्रस्तावों को वापस ले लें।

लीना मेंघानी ने कहा कि आरसीईपी वार्ताकारों को मौजूदा सार्वजनिक स्वास्थ्य सुरक्षा उपायों की रक्षा करनी चाहिए, जो भारत जैसे विकासशील देशों को दुनिया भर के लाखों लोगों के इलाज के लिए जीवन रक्षक सस्ती और जरूरी दवाओं की आपूर्ति बनाए रखने में सक्षम बना सके। यह मुद्दा भारत के  लिए बहुत संवेदनशील है, क्योंकि भारत में ज्यादातर लोग इलाज के लिए अपनी क्षमता से ज्यादा खर्च करते हैं और दवा के मूल्यों में एक बड़ी छलांग उनके जीवन को प्रभावित कर सकती है।

यह सौदा अभी तक नहीं हुआ है। भारत इस हफ्ते इस पर बातचीत करेगा। अब तक भारत पर अपने बौद्धिक संपदा अधिकार कानून को बदलने के लिए उतना अंतरराष्ट्रीय दबाव नहीं पड़ा है, जो लोगों को सुरक्षा प्रदान करते हैं। लेकिन दबाव बढ़ रहा है, हालांकि देश में इस विषय पर बहुत ज्यादा सार्वजनिक बहस नहीं हो रही है। भारत को अपना पक्ष मजबूती से रखने की जरूरत है।

दूर देश में होने वाली इस वार्ता और हमारे देश में आम जिंदगी से इसके संबंध का पता मुझे हाल ही तब चला, जब मुझे मालूम हुआ कि मेरे यहां खाना बनाने वाली को कैंसर हुआ है और यह एडवांस स्टेज में है। कैंसर का इलाज  मध्यवर्गीय लोगों के लिए भी बेहद महंगा है। यह जीवन और परिवारों को उजाड़ देता है। मेरे रसोइए के परिवार ने पहले ही अपनी तमाम जमा-पूंजी खर्च कर दी है। जितना हो सकता है, मैं उसकी मदद करती हूं, लेकिन मैं जानती हूं कि यह पर्याप्त नहीं है।

भारत जैसे देश में उसके और उसके परिवार जैसे लोगों के लिए महंगी दवाओं का क्या मतलब है, जहां बहुत कम लोगों के पास स्वास्थ्य बीमा है और जहां बीमा में आम तौर पर दवाओं के खर्च के कवर नहीं किया जाता?

ये ऐसे मुद्दे हैं, जिनके बारे में चुनाव प्रचार के दौरान कभी चर्चा नहीं होती। आज राष्ट्रवाद सबसे चर्चित शब्द है। असंख्य तरीके से आप इस शब्द को परिभाषित कर सकते हैं। लेकिन राष्ट्रवाद यह मांग क्यों नहीं करता कि राष्ट्र को लोगों को सिर्फ इसलिए नहीं मरने देना चाहिए कि वे इलाज का खर्च नहीं उठा सकते।

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